Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राजा की रानी

और कोई दूसरी बात उनके मुँह से बाहर निकलना भी असम्भव थी। ग्यारह बजे के लगभग कॉरेण्टाइन के पास एक छोटा-सा स्टीमर आकर जहाज से सटकर खड़ा हो गया। समस्त डेक के यात्रियों को यही उस भयानक स्थान में ले जाएगा। माल-असबाब बाँधने-छोरने की धूम मच गयी। मुझे जल्दी नहीं थी; क्योंकि, डॉक्टर बाबू का आदमी अभी ही कह गया था कि मुझे वहाँ नहीं जाना पड़ेगा। निश्चिंत होकर यात्रियों और खलासियों की चिल्लाहट और दौड़-धूप कुछ अन्यमनस्क-सा होकर देख रहा था। हठात् पीछे से एक शब्द सुन पड़ा, पलटकर देखा कि अभया खड़ी है। आश्चर्य के साथ पूछा, “आप यहाँ कैसे?”

अभया बोली, “क्यों, क्या आप अपनी चीज-बस्त बाँधोगे नहीं?”

मैंने कहा, “नहीं, मुझे अभी काफी देर है, मुझे वहाँ नहीं जाना पड़ेगा। एकदम शहर में जाकर उतरूँगा।”

अभया बोली, “नहीं, शीघ्र सामान ठीक कर लीजिए।”

मैंने कहा, “मुझे अब भी बहुत समय है।...”

अभया ने प्रबल वेग से सिर हिलाकर कहा, “नहीं, सो नहीं हो सकता, मुझे छोड़कर आप किसी तरह नहीं जाने पाएँगे।”

मैं अवाक् होकर बोला, “यह क्या? मेरा तो वहाँ जाना नहीं हो सकेगा।”

अभया बोली, “तो फिर, मेरा भी नहीं हो सकेगा। मैं पानी में भले ही फाँद पूड़ूँ, परन्तु, निराश्रय होकर इस जगह किसी तरह नहीं जाऊँगी। वहाँ की सब बातें सुन चुकी हूँ।” यह कहते-कहते उसकी ऑंखें छलछला आईं। मैं हतबुद्धि-सा होकर बैठा रहा। “यह कौन है जो मुझे इस तरह धीरे-धीरे जोर डालकर अपने जीवन के साथ जकड़ रही है?

वह ऑंचल से ऑंखें पोंछकर बोली, “मुझे अकेली छोड़कर चले जावेंगे? मैं नहीं सोच सकती कि आप इतने निष्ठुर हो सकते हैं। उठिए, नीचे चलिए। आप न होंगे तो उस बीमार आदमी को साथ लेकर मैं अकेली औरत-जात क्या करूँगी, आप ही बताइए?”

अपना माल-असबाब लेकर जब मैं छोटे स्टीमर पर चढ़ा तब डॉक्टर बाबू ऊपर के डेक पर खड़े थे। हठात् मुझे इस अवस्था में देखकर वे हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहने लगे, “नहीं नहीं, आपको न जाना होगा। लौट आइए, लौट आइए- आपके लिए हुक्म हो गया है, आप...”

मैंने भी हाथ हिलाते हुए चिल्लाकर कहा, “असंख्य धन्यवाद, किन्तु एक और हुक्म से मुझे जाना पड़ रहा है।”

सहसा उनकी दृष्टि अभया और रोहिणी पर जा पड़ी। वे मुसकराते हुए बोले, “तब मुझे बेकार ही कष्ट दिया?”

“उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।”

“नहीं नहीं, उसकी जरूरत नहीं, मैं पहले से ही जानता था, गुड बाई।” यह कहकर डॉक्टर बाबू हँसते चेहरे से चले गये।
♦♦ • ♦♦

'कॉरंटाइन' नामक जेलखाने में भेजने का कानून केवल 'कुलियों' के लिए है- शरीफों के लिए नहीं; और जो जहाज का किराया दस रुपये से अधिक नहीं देता वही 'कुली' है। चाय के बगीचों का कायदा क्या कहता है सो नहीं मालूम; पर जहाजी कानून तो यही है। और अधिकारी या अफसर प्रत्यक्ष ज्ञान से क्या जानते हैं, यह तो वे ही जानें; किन्तु ऑफिशियल इससे अधिक जानने की रीति नहीं है। इसलिए, इस यात्रा में हम सब 'कुली' थे। और, साहब लोग यह भी समझते हैं कि कुली की जीवन-यात्रा के लिए माल-असबाब ऐसा कुछ अधिक नहीं हो सकता- और न होना उचित ही है, कि जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक कन्धों पर रखकर वह न ले जा सकता हो। इसलिए, उतरने के घाट पर केरिण्टिन-यात्रियों का माल-असबाब ले जाने के लिए यदि कोई व्यवस्था नहीं है तो इसके लिए क्षुब्ध होने का कोई कारण नहीं। यह सब सच है; फिर भी, यह केवल हमारे ही भाग्य का दोष समझिए कि हम तीन प्राणी, सिर के ऊपर प्रचण्ड सूर्य और पैरों के नीचे उससे भी अधिक उग्र बालुका-राशि से जलते हुए, एक अपरिचित नदी के किनारे बड़े-बड़े गट्ठर सामने रखकर किंकर्तव्यवि‍‍मूढ़ भाव से एक दूसरे का मुँह देखते खड़े हुए हैं। साथ के यात्रियों का परिचय पहले ही दे चुका हूँ। वे लोग अपने लोटे-कम्बल पीठ पर रखकर, और अपेक्षाकृत अधिक बोझ अपनी गृहलक्ष्मियों के सिर पर लादकर, मजे से गन्तव्य स्थान पर चले गये।

देखते-देखते रोहिणी भइया बिस्तरों के एक बण्डल पर काँपते-काँपते धम से बैठ गये। बुखार, पेट का दर्द और भारी थकावट- इन सब कारणों के एकत्र होने से उनकी अवस्था ऐसी थी कि उनके लिए, चलना बहुत दूर की बात है; बैठना भी असम्भव हो गया। लेट जाने में ही उनकी रक्षा थी। अभया ठहरी औरत-जात। बचा सिर्फ मैं और मेरी तथा पराई छोटी-मोटी गठरियाँ। मेरी दशा एकबारगी सोचकर देखने योग्य थी। एक तो अकारण ही एक अज्ञात अप्रीतिकर स्थान में जा रहा था; दूसरे, एक कन्धों पर तो एक अज्ञात निरुपाय स्त्री का बोझ था और दूसरे कन्धों पर झूल रहा था उतना ही अपरिचित एक बीमार पुरुष और ऊपर से घाते में थीं गठरियाँ। इन सबके बीच में मैं अत्यन्त उग्र प्यास को लिये, जो कि सारे गले को सुखाए देती थी, एक अज्ञात जगह में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़ा था। मेरे इस चित्र की कल्पना करके बतौर पाठ के लोगों को खूब आनन्द आ सकता है- कुछ सहृदय पाठक, शायद, मेरी इस नि:स्वार्थ परोपकार-वृत्ति की प्रशंसा भी कर सकते हैं; किन्तु, मुझे यह कहते जरा भी शर्म नहीं कि उस उस समय इस हतभागी का मन झुँझलाहट और पश्चात्ताप से एकबारगी परिपूर्ण हो गया था। अपने आपको सैकड़ों धिक्कार देता हुआ मन ही मन कह रहा था, कि इतना बड़ा गधा त्रिलोक में क्या और भी कोई होगा! किन्तु, बड़े अचरज की बात है, कि यद्यपि यह परिचय मेरे शरीर पर लिखा हुआ नहीं था, फिर भी, जहाज-भर के इतने लोगों के बीच में भार-वहन करने के लिए अभया ने मुझे ही क्यों और किस तरह एकदम से पहिचानकर छाँट लिया?

किन्तु, मेरा विस्मय दूर हुआ उसकी हँसी से। उसने मुँह उठाकर जरा-सा हँस दिया। उसके हँसी भरे चेहरे को देखकर मुझे केवल विस्मय ही नहीं हुआ-उसके भयानक दु:ख की छाया भी इस दफे मुझे दिख गयी। किन्तु सबसे अधिक अचरज तो मुझे उस ग्रामीण स्त्री की बात सुनकर हुआ। कहाँ तो लज्जा और कृतज्ञता से धरती में गड़कर उसे भिक्षा माँगना चाहिए था, और कहाँ उसने हँसकर कहा, “कहीं यह खयाल न कर बैठना, कि खूब ठगाए गये! अनायास ही जा सकते थे फिर भी गये नहीं, इसी का नाम है दान। पर, मैं यह कहे रखती हूँ कि इतना बड़ा दान करने का सुयोग जीवन में, शायद, कम ही मिलेगा। किन्तु, जाने दो इन बातों को। माल-असबाब इसी जगह पड़ा रहने दो, और चलो, देखें, इन्हें कहीं छाया में सुलाया जा सकता है या नहीं।”

आखिर, गट्ठर-गठरियों की ममता छोड़कर मैं रोहिणी भइया को पीठ पर लादकर केरिण्टिन की ओर रवाना हुआ। अभया ने केवल एक छोटा-सा हाथ-बॉक्स लेकर मेरा अनुसरण किया और समान वहाँ ही पड़ा रहा। अवश्य ही वह सब खोया नहीं गया- कोई दो घण्टे बाद उसे ले आने का प्रबन्ध हो गया।

   0
0 Comments